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                  लाल बत्तियोँ मे साँस लेता वक्त 
                  
 अक्सर देखता हूँ
 वक्त को..
 अपने नन्हे हाँथ फैलाये
 दिल्ली की लाल बत्तियों पर...
 
 यह..कभी कभी
 साल मे दो-चार बार
 तिरंगे झंडे को बेचकर भी
 दो-वक्त की रोटी का जुगाड करता
 दिख जाता है...
 
 और कभी..
 फटे चीथडों में लिपटा...
 फुटपाथ से चिपटा
 दिख ही जाता है...
 
 एक दिन तो मेरे करीब आकर बोला..
 बाबूजी,
 बस एक रुपया दे दो..
 दो दिन से कुछ खाया नही..
 
 कभी...किसी दिन
 यह शनि बन जाता है..
 और थाम लेता है
 सरसों के तेल से भरा एक कटोरा
 अपने नन्हें हाथों में...
 और,
 निकल पडता है
 हमें शनि के शाप से
 मुक्त करने....
 
 यह हमेशा चलता रहता है..
 कभी थकता भी नही..
 इसके सोने और जागने का भी
 कोई हिसाब नही रखता...
 
 शायद...
 यह हमेशा ऐसे ही चलेगा..
 यह अक्सर दिखेगा..
 कहीं...किसी भी लाल बत्ती पर..
 
 और,
 हम तमाशबीन बने दूर खडे..
 इस वक्त को भी..
 सिर्फ,
 आते जाते ही देखते रहेंगे..
 
 लोग कहते तो हैं
 वक्त के साथ शायद....
 सब कुछ बदल जाता है..
 पर यह वक्त तो कभी नही बदला...
 
 दिल्ली की ठंडी सुबहों में
 अक्सर
 एक जिन्दगी को
 देखा करता था
 बुझते हुए,
 
 वह पेड़ के तले
 इर्द गिर्द बिखरे सिक्कों को
 काँपते हाथों से
 बीनने की नाकाम
 कोशिश करती
 
 कभी पास से गुजरते को
 असहाय निहारती,
 कभी ना जाने क्या बुदबुदाती
 
 मैं जब भी
 उसके पास से गुजरता
 सहम जाता,
 टटोलने लगता
 जेब में पड़े चंद सिक्के
 तब जैसे मेरे हाथ सुन्न पड़ जाते
 
 तमाम कोशिश के बावजूद
 मेरा हाथ नहीं छूट पाता
 मेरी जेब की गिरफ्त से,
 और मैं तेज कदमों से
 आगे बढ़ जाता
 
 उसकी अस्पष्ट
 पर रुह को कंपकपाने वाली
 बुदबुदाहट "बने रहो बाबू"
 दूर तक पीछा करती मेरा
 
 अब,
 उसकी बुदबुदाहट
 तब्दील हो गई है चीख में,
 
 हालाँकि मैंने
 बदल लिया है रास्ता
 फिर भी वह आवाज
 अक्सर मेरा पीछा करती है।
 २० अप्रैल २००९ |