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                  अक्सर, मौसमों की छत तले  किसी मौसम मेंएक इतिहास
 मैं भी रचना चाहता था...
 
 कभी बारिश की
 बूँदों की टपटप के बीच
 तो कभी,
 हरी, पीली, बसंती
 सरसों के साथ....
 और,
 कभी लपकाती हुई तारकोली
 दिल्ली की सड़कों में
 आवारा बन....
 
 हाँ,
 एक मौसम चला था
 मेरे साथ भी,
 कुछ पल....
 सर्द कोहरे की धुन्ध मे
 लिपटा हुआ....
 
 अलसाई हुई,
 सुबहों के साथ
 एक दिन,
 करवट बदली थी इतिहास ने.....
 
 अपनी कँपकपाती हुई
 उँगलियों के बीच फँसी
 उस अधजली सिगरेट के
 दो कश लिए थे...बस
 तभी,
 दूर कहीं कोहरे में गुम
 उसकी...
 सफेद आकृति ने
 करीब आकर साँस ली...
 और,
 कर गयी स्तब्ध....
 
 ठगा सा देखता रहा
 उसे, यूँ ही....
 उँगलियों की जलन ने
 आभास कराया मुझे,
 मेरे अपने
 वहाँ होने का....
 
 कितने मौसमो की उम्र
 साथ लिये...
 जिये थे वह
 हसीन से लम्हे
 मैने...
 
 अब तो,
 पीले पत्तों का मौसम
 जा चुका है.....
 बावजूद इसके....
 कभी बन ना सका मै,
 उसके प्रेम का
 कोई भी एक हिस्सा...
 
 और,
 दूर खड़े देखता रहा
 बस यूँ उसे,
 किसी और का इतिहास बनते....
 
 अक्सर,
 मौसमो की छत तले
 आज भी वह,
 बेहद याद आती है...
 २० अप्रैल २००९ |