| ऋतुपर्णा तुम 
                  आज भी नहीं आई आज कुछधुँधली पड़ गई लकीरों को
 फिर से गाढा किया
 उन पर कुछ रंग फेंकेलाल हरे नीले सफेद
 अबकैनवस का कोई हिस्सा
 खाली नहीं रहा
 बड़ी खामोशी के साथउन फैले पड़े रंगों को
 घंटो निहारता रहा
 अचानक,गाढ़ी पड़ चुकी लकीरें
 अब अस्पस्ट नज़र आने लगी
 और फिर,
 पूरा का पूरा कैनवास खाली
 बिल्कुल सफेद
 जैसे कभी वहा रंग थे ही नहीं..
 फ़ीकी पड़ चुकी लकीरें
 अब शब्दों में तब्दील हो गई
 हाँ..यही शब्द तो थेरितुपर्ना तुम आज भी नहीं आयी
 ५ अक्तूबर २००९ |