अनुभूति में
प्रभु दयाल की रचनाएँ-
कुंडलिया में-
छह कुंडलिया राजनीति से
गीतों में-
कुछ बात करें चुपके चुपके
खोल दूँगी खिड़कियाँ
भीतर की तनहाई
सुबह सुबह ही भूल गए
सूरज फिर से हुआ लाल है
हम नंगे पाँव चले आए
अंजुमन में-
घी शक्कर का रोटी पुंगा
दोनों खुश
हैं
पी लो पीड़ा
बंदर बिगड़ते जा रहे हैं
क्षणिकाओं
में-
दस क्षणिकाएँ |
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सुबह सुबह ही
भूल गए
शीश महल बन पलकों पर
इतराए सारी रात
सुबह सुबह ही भूल गए
हम सपनों वाली बात।
कहने को तो पैर हमारे
चढ़े जा रहे सीढ़ी पर
किंतु सदी की आँखे छलकी
बहुत आज की पीढ़ीपर
डूब रही गंदले पोखर में
अब पर्वत की जात।
लगा दिये हैं हर चौखट पर
यों प्रकाश के दरवाजे
शंख फूँककर इंकलाब के
बजे रोशनी के बाजे
अंधों के घर दे आए हम
सूरज की सौगात।
रूखे अपने आप हो रहे
ऊँचे होकर वृक्ष
घूम रहे आवारा से अब
लोकतंत्र के यक्ष
तोड़लिये अपने हाथों से
हमने अपने हाथ|।
धार नदी की मोड़ी थी
हमने सागर की ओर
किश्ती बनकर तैर गए
उसमें उदगम के चोर
लहरों को ही बांध दिया
तट ने लंगर के साथ।
३ अक्तूबर २०११ |