अनुभूति में
प्रभु दयाल की रचनाएँ-
कुंडलिया में-
छह कुंडलिया राजनीति से
गीतों में-
कुछ बात करें चुपके चुपके
खोल दूँगी खिड़कियाँ
भीतर की तनहाई
सुबह सुबह ही भूल गए
सूरज फिर से हुआ लाल है
हम नंगे पाँव चले आए
अंजुमन में-
घी शक्कर का रोटी पुंगा
दोनों खुश
हैं
पी लो पीड़ा
बंदर बिगड़ते जा रहे हैं
क्षणिकाओं
में-
दस क्षणिकाएँ |
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घी शक्कर का
रोटी पुंगा
घी शक्कर का रोटी पुंगा मुझे थमा देती थी माँ
उस सूखी रोटी में दिल का प्यार मिला देती थी माँ
कभी क्रोध में घूंसा लेकर मुझ पर झपटा करती थी
किंतु पास आने पर हल्का धौल जमा देती थी माँ
छोटी बहिन छुड़ा लेती जब मेरे हिस्से का चावल
अपने हिस्से का लाकर सब मुझे खिला देती थी माँ
और गरीबी के आलम में कभी दूध की जिद करता
कप भर पानी में चम्म्च भर दूध मिला देती थी माँ
किसी पड़ोसी ने जब भी मुझसे कुछ ऊँचा कहा सुना
आसमान सिर पर अपने संपूर्ण उठा लेती थी माँ
किसी सहेली या खुद उसकी मुझको नज़र न लग जाये
काजल वाला एक डिठोना रोज लगा देती थी माँ
याद मुझे बचपन आ जाता माँ की प्यारी सूरत भी
आँचल में 'मेरा छौना' कह मुझे छुपा लेती थी माँ
२७ जून २०११ |