अनुभूति में
प्रभु दयाल की रचनाएँ-
कुंडलिया में-
छह कुंडलिया राजनीति से
गीतों में-
कुछ बात करें चुपके चुपके
खोल दूँगी खिड़कियाँ
भीतर की तनहाई
सुबह सुबह ही भूल गए
सूरज फिर से हुआ लाल है
हम नंगे पाँव चले आए
अंजुमन में-
घी शक्कर का रोटी पुंगा
दोनों खुश
हैं
पी लो पीड़ा
बंदर बिगड़ते जा रहे हैं
क्षणिकाओं
में-
दस क्षणिकाएँ |
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भीतर की तनहाई
थपकी दे दे हाथ थके
बच्चे को सुला नहीं पाया
उसका रोना उसके आँसू
मैं अब तक भुला नहीं पाया
जो कई सदियों से गुमसुम सी
चुपचाप अकेली बैठी है
उस भीतर की तनहाई का
मुँह अब तक खुला नहीं पाया
आमंत्रण तो कई लिखे
लिखकर फाड़े फिर लिख डाले
सब व्यर्थ जेब में पड़े रहे
पर कभी डाक में न डाले
बस इसी अनिश्चितता से ही
सुधियों को बुला नहीं पाया।
अपने ही लोग कहा करते
यह जीवन एक भुलावा है
जो आँखों से दिखता हमको
सब का सब झूठ दिखावा है
माटी के खेल खिलोनों से
मन कभी नहीं बहला पाया।
ऐसे भी ढेरों लोग मिले
जो चढ़े हिमालय की चोटी
पर दिखे सेंकते सब अपनी
औरों की भट्टी पर रोटी
चेतन तो होते रहे लक्ष्य
जड़ता को हिला नहिं पाया।
३ अक्तूबर २०११ |