अनुभूति में
प्रभु दयाल की रचनाएँ-
कुंडलिया में-
छह कुंडलिया राजनीति से
गीतों में-
कुछ बात करें चुपके चुपके
खोल दूँगी खिड़कियाँ
भीतर की तनहाई
सुबह सुबह ही भूल गए
सूरज फिर से हुआ लाल है
हम नंगे पाँव चले आए
अंजुमन में-
घी शक्कर का रोटी पुंगा
दोनों खुश
हैं
पी लो पीड़ा
बंदर बिगड़ते जा रहे हैं
क्षणिकाओं
में-
दस क्षणिकाएँ |
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खोल दूँगी खिड़कियाँ
खोल दूँगी खिड़कियाँ
बस कुछ क्षणों को
बीत जाने दो
सोई हवा को जागने दो
गीत गाने दो
खोल दूँगी खिड़कियाँ स्नेह की
मेघ को तो कुछ धरा के पास आने दो।
बदलियों की ओट में
अब चंद्रमा छुपने लगा
रात को लेकर अँधेरा
प्यार करने के बहाने
बाँह में कसने लगा
बिजलियों को मुस्कराने दो
लजाने दो
खोल दूँगी खिड़कियाँ स्नेह की
मेघ को तो कुछ धरा के पास आने दो।
चुप्पियों की डायनों से
आँगना डरने लगा
मेघ नाचे नाच काला
छुप गया बिलकुल उजाला
रात पर मरने लगा
बूँद को आँचल उड़ाने दो
गिराने दो
खोल दूँगी खिड़कियाँ स्नेह की
मेघ को तो कुछ धरा के पास आने दो।
३ अक्तूबर २०११ |