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अनुभूति में प्रभु दयाल की रचनाएँ-

कुंडलिया में-
छह कुंडलिया राजनीति से

गीतों में-
कुछ बात करें चुपके चुपके
खोल दूँगी खिड़कियाँ
भीतर की तनहाई
सुबह सुबह ही भूल गए
सूरज फिर से हुआ लाल है
हम नंगे पाँव चले आए

अंजुमन में-
घी शक्कर का रोटी पुंगा

दोनों खुश हैं
पी लो पीड़ा
बंदर बिगड़ते जा रहे हैं

क्षणिकाओं में-
दस क्षणिकाएँ

 

कुंडलियाँ

[१]

इस क्षण में वादा करें उस क्षण जायें भूल
ऐसे नर को क्या कहें जिनके नहीं उसूल
जिनके नहीं उसूल वही नर नेता बनते
बेपेंदी के लोटे जैसे फिरें लुड़कते
कहते हैं अब लोग फरेबी पेड़ फल रहा
सच्चों के ऊपर झूठों का राज चल रहा

[२]

जब तक दम है खाइये रिश्वत खब्बूलाल
चूके गर मौका कहीं,नहीं गलेगी दाल
नहीं गलेगी दाल अरे फिर क्या खाओगे
बेटा खब्बूलाल तड़फकर मर जाओगे
देता कवि सलाह कि मारो रोज झपट्टा
वर्ना धीरज का फल हो जायेगा खट्टा

[३]

फिर से वे आने लगे जनता के घर द्वार
लगे प्यार को बाँटने बन बन कर सरकार
बन बन कर सरकार चोंचले दिखा रहे हैं
पनघट बन कर प्यासों को जल पिला रहे हैं
कहते हैं सब लोग, नशे का जल देते हैं
चेहरे पर जादू का चूना मल देते हैं

[४]

मंत्रीजी के द्वार पर भई नेतन की भीड़
एम एल ए शरबत पियें सांसद खाएँ खीर
सांसद खाएँ खीर अजब मीठी मीठी है
संतुष्टों की भीड़ जमी बाहर बैठी है
कहते हैं विद्वान चाँदनी बाँट रहे हैं
हँसमुखजी चाँदी की चप्पल चाट रहे हैं

[६]

जो पहले थे सतपुड़ा बने हिमालय आज
जिसने काटे सिर कई आज वही सरताज
आज वही सरताज सियासी चालें चलते
कितनी भी दो आँच बर्फ बन नहीं पिघलते
कहते हैं अब लोग ऊँचाई व्यर्थ हो गई
जीवन की अभिलाषा केवल अर्थ हो गई

[६]

पढ़ना लिखना व्यर्थ है अब छोड़ो स्कूल
बने अगर विद्वान तो होगी भारी भूल
होगी भारी भूल जिंदगी अब नेता है
नेता इस जीवन में सब कुछ पा लेता है
सबको नेक सलाह कि बेचो डिग्री सारी
अब डिग्री पर पड़ती अनपढ़ माया भारी

२१ नवंबर २०११

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