यूँ न ठुकरा मुझे, मत तिरस्कार कर,
एक मूरत हूँ मैं अनगढ़ी रह गई
मुझको पढ़ मेरी माँ मैं हूँ ऐसी ग़ज़ल,
जो लिखी तो गई बिन पढ़ी रह गई
कोख में जब रखा मैंने पहला कदम,
मेरी आँखों में सपने मचलने लगे
गाज तो तब गिरी जब ये मैंने सुना,
बागबाँ खुद कली को मसलने लगे
रूह तो उड़ चली जाने किस देश में,
देह निष्प्राण मेरी पड़ी रह गई
तेरे बेटे के हाथों की राखी थी मैं,
अपने हाथों से खुद तूने तोड़ा मुझे
अपने भैय्या का नन्हा खिलौना थी मैं,
तोड़कर फिर कहीं का न छोड़ा मुझे
लग के बाबुल के काँधे से होती विदा,
बिन कहारों के डोली खड़ी रह
गई
मेरी क्या थी खता मुझको इतना बता,
क्या हुआ तेरे अँगना कली खिल गई?
देगी आँचल मुझे या कि देगी कफ़न,
क्या करेगी दोबारा जो मैं मिल गई
सब ये कहते हैं ममता की मूरत है माँ,
चाह बेटे की मुझसे बड़ी रह गई