अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में रमेशचंद्र शर्मा 'आरसी' की रचनाएँ -

नए गीतों में-
आँख के काजल
उगते सूरज को
यों न ठुकरा
शब्द की इक नदी

गीतों में-
खुद्दारी
चूड़ियाँ
ज़िन्दगी
बसंत गीत

मेरे गीत क्या है
सूर्य की पहली किरण हो

अंजुमन में-
काली कजरारी रातों में
मेरे गीतों को


संकलन में-
ममतामयी- माँ कुछ दिन
दिये जलाओ- दिवाली के दोहे

 

  शब्द की इक नदी

मौन व्रत ले
के बैठे हों संवाद जब,
हमको रह रह के डसतीं हैं खामोशियाँ,
शब्द चुप हो
गए, अर्थ गुम हो गए,
और शापित हैं आकुल सीं अभिव्यक्तियाँ।

तुम ये कहते हो
कुछ भी हुआ ही नहीं,
चलते चलते मगर ज़िन्दगी थम गई,
जब अहं के ये पर्वत हिमालय हुए,
बोल पथरा गए, बर्फ़ सी
जम गई,
पिछले रिश्तों
की थोड़ी तपन दे सको,
तो पिघल जाएँगीं मोम की वादियाँ।

शब्द इतने
भी बोझिल नहीं हो गए,
कि अधर उनका बोझा उठा न सकें,
मूक परिचय अग़र रूठ जाएँ तो क्या ?
हम मुखर होके उनको
मना न सकें,
आवरण में बँधी
जिल्द में खो के हम,
पढ़ न पाए जो भीतर थीं बारीकियाँ ।

शब्द की
इक नदी बीच में बह रही,
हम किनारे की मानिन्द कटते गए,
थी विरासत में रिश्तों की पूंजी बहुत,
पर बसीयत में लिखे
से बँटते गए,
हमने देखा
है सूरज को ढ़लते हुए,
कितनी लम्बी सीं लगतीं हैं परछाइयाँ।

१९

hit counter
जुलाई २०१०

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter