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बसन्त-गीत
धडकनों ने लिखा गीत फिर से नया,
ज़िन्दगी फिर वही गुनगुनाने लगी।
साँस की लय पे शब्दों के घुंघरू बजे,
मन की हसरत कोई कसमसाने लगी।
ज़र्द पत्तों की साँसें उखड़ने
लगीं,
कोंपलें अब किलकतीं हैं नवजात-सी।
बंद अधरों से कलियों के ऐसा लगे,
मन में घुटती हैं अरसे से कुछ बात-सी।
राग बिरहा का छेड़ा पपीहे ने जब,
फिर उमंगें दबीं सिर उठाने लगीं।
लेके पाती चली जब बसंती पवन,
रंग फागुन की रुत का बदलने लगा।
जाने क्या कह गई कान में तितलियाँ,
फूल कोई गुलाबी बहकने लगा।
जब से देखा पलाशों का दहका बदन,
होके मदहोश कोयल भी गाने लगी।
गीत हो या ग़ज़ल, या रुबाई कोई,
हर कलम लिख रही प्यार मधुमास का।
तिरछे-तिरछे मदनबाण ऐसे लगे,
मन खिला, फूल जैसे अमलतास का।
रंग धरती की चूनर का धानी हुआ,
मन बसंती है सरसों बताने लगी।
२९
मार्च २०१० |