काली कजराई
रातों में काली कजराई
रातों में भोर के पल ढूँढा करता हूँ,
आँखों की सूखी झीलों में नीलकमल ढूँढा करता हूँ।
बंजारों-सा
जीवन जीकर ठौर-ठिकाने भूले जब,
सुधियों की गठरी में अपने बिसरे पल ढूँढा करता हूँ।
जर्जर होकर रिश्ते नाते खंडहर
से आभासित होते,
संबंधों का तर्पण करने गंगाजल ढूँढा करता हूँ।
शीतल छाँव दिया करता, मैं जिसको
थामे चलता था,
जीवन मेले में छूटा माँ का आँचल ढूँढा करता हूँ।
अभिलाषा ने स्वप्न संजोये नयनों
में बसने की चाहत,
नेह निमंत्रण देती आँखों में काजल ढूँढा करता हूँ।
जीवन के मरुथल में जो अब
सरस्वती-सी लुप्त हुई,
सूखे अधरों पर मुस्कानें, मैं निश्छल ढूँढा करता हूँ।
नाभि सुवासित कस्तुरीमृग फिरे
'आरसी'
जंगल-जंगल,
मन की जहाँ कुमुदिनी खिलती वो दलदल ढूँढा करता हूँ।
२९
मार्च २०१० |