आँख के काजल को मैंने रोशनाई तो
बनाया,
पर प्रणय के छ्न्द अब तक गीत में न ढाल पाया ।
यों नूपुर तो पायलों के
साँस की लय पर बजे हैं,
बिम्ब सुधियों के सुनहरे आज भी नयनों सजे हैं।
देहरी संकोच की न आज तक लाँघी गई है,
वेणियों में शब्द के गजरे कहाँ मैं बाँध पाया।
दीप मैनें भी जलाये प्रीत के मन द्वार पर,
और हवाओं से बचाए हाथ को दीवार कर।
पर हथेली में कभी न प्रेम की रेखा बनी,
मैंने तो नदिया किनारे रेत का बस घर बनाया।
मन के मन्दिर में बिठाईं मूर्ती पाषाण की,
और अपेक्षा कर रहा था उस से भी वरदान की।
पर हवन करते हुए खुद हाथ अपने ही जले,
हार कर लौटा सदा ही दांव पर मन जब लगाया।
आंख के काजल को मैंने रोशनाई तो बनाया