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रूप अनोखे
जीवन की डोरी को साधे
नटनी जैसी चलती तू!
माँ-बाबा के घर-आँगन की
तू ही तो किलकारी है
पावन कर दे कोना-कोना
तू तुलसी की क्यारी है
बेटे कुल-दीपक कहलाते
कंदिल बन कर जलती तू!
भाई की नटखट बातों पर
मन ही मन मुसकाती है
सुख-दुख में परछाई बनकर
माँ-सा प्यार लुटाती है
संबंधों की ओढ़ चुनरिया
कितने रूप बदलती तू!
प्रियतम की साँसों में घुलकर
चन्दन-सा महकाती है
सूखे-बंजर, नीरव तट पर
बन सरिता बह जाती है
गीली माटी-सी चक्के पर
नये रूप में ढलती तू!
दिनकर के गालों पर लाली
तूने ही बिखराई है
आम्र-बौर ने मादक खुशबू
तुझसे ही तो पाई है
जीवन के हर इक चेहरे पर
रंग अनोखे मलती तू!
२० जुलाई २०१५
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