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अपना मन
झकझोर
ज़रा कवि,
अपना मन झकझोर!
प्रबल अँधेरा, दूर सबेरा
रजनी ने अग-जग को घेरा
कालकूट का ज़ोर!
रक्त-विरंजित दसों दिशाएँ
कैसे अपनी राह बनाएँ
बर्बरता चहुँ ओर!
राज़ घनेरे तेरे मेरे
पग-पग गुप्तचरों के फेरे
उलझ गई है डोर!
राज-पाट के मूक इशारे
आँखों-आँखों वारे-न्यारे
है सत्ता का शोर!
लाक्षागृह-सी क्रूर बिसातें
क़दम-क़दम होतीं शह-मातें
कलुषित है हर भोर!
काल-धनुष पर चढ़ी प्रत्यंचा
कहीं धमाका, कहीं तमंचा
सिहर उठा हर पोर!
२० जुलाई २०१५
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