अंधेरे का
मुसाफ़िर यह सिमटती साँझ
यह वीरान जंगल का सिरा
यह बिखरती रात
यह चारों तरफ़ सहमी धरा
उस पहाडी पर पहुँच कर
रोशनी पथरा गई
आखिरी आवाज़ पंखो की
किसी के आ गई
रुक गईं अब तो अचानक
लहर की अंगड़ाइयाँ
ताल के खामोश जल पर
सो गई परछाइयाँ।
दूर पेंडो की कतारे
एक ही में मिल गई
एक धब्बा रह गया जैसे
ज़मीनें हिल गईं
आसमाँ तक टूट कर जैसे
धरा पर गिर गया
बस धुएँ के बादलों से
सामने पथ घिर गया
यह अँधेरे की पिटारी
रास्ता यह साँप-सा
खोलने वाला अनाड़ी
मन रहा है काँप-सा
लड़खड़ाने लग गया मै
डगमगाने लग गया
देहरी का दीप तेरा
याद आने लग गया
थाम ले कोई किरण की बाँह
मुझको थाम ले
नाम ले कोई कहीं से
रोशनी का नाम ले
कोई कह दे दूर देखो
टिमटिमाया दीप एक
ओ अंधेरे के मुसाफ़िर
उसके आगे घुटने टेक |