सूख गई संवेदना
बार-बार लिखकर थकी, थककर हुई
उदास।
कब लिख पाई लेखनी, आँसू का इतिहास।।
आँखों में तिरने लगी, भावों की
तस्वीर।
बिन बोले ही कह गई, कितना मन की पीर।।
आँखें
भी ख़ामोश थीं, और अधर भी मौन।
फिर बातें करता रहा, जाने मुझसे कौन।।
कलम हुई बैसाखियाँ, बुज़दिल
कलाम।
झुक-झुक कुबड़े कर रहे, सत्ता तुझे सलाम।।
लगी खेलने लेखनी, सुख-सुविधा के
खेल।
फिर सत्ता की नाक में, डाले कौन नकेल।।
शीश झुके जिस द्वार पे, क्या
कबिरा का काम।
मिलते हैं दरबार में, देव और मतिराम।।
कविता बैठी हाट पर, लिए पराई
पीर।
फ़ैशन के इस दौर में, सस्ते हुए कबीर।।
इक काना, एक कूबड़ा, मणिकांचन-संयोग।
नए दौर के योग्य हैं, सचमुच ऐसे लोग।।
मन गिरवी, तन बंधुआ, सांसें हुई
गुलाम।
घुटन-भरे इस दौर में, जीयें कैसे राम।।
तुमने हमको क्या दिया, अरी सदी
बेपीर।
छुरी, मुखौटे कैंचियां, और विषैले तीर।।
सूख गई संवेदना, मरी मनों की
टीस।
अब कोई रोता नहीं, एक मरे या बीस।।
२६ मई २००८ |