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महफ़िल थी इंसान की

महफ़िल थी इंसान की, मुद्दा था भगवान।
वक्ता तो थे देवता, निर्णायक शैतान।।

विष पीया सुकरात ने, ईसा चढ़े सलीब।
सत्य अभागे के लिखा, केवल यही नसीब।।

बिना तपे सोना बना, कब कुंदन अभिराम।
वन-वन भटके तब कहीं, राम बने श्रीराम।।

ठोकर खाते, भोगते, जो जीवन-वनवास।
रचते हैं वे ही सदा, एक नया इतिहास।।

धरा सुहागिन-सी लगे, सँवरा-सजा दिगंत
बनी राधिका हर कली, आया रसिक बसंत।।

हवा बजाती बाँसुरी, धूप बजाती ढोल।
भँवरे पिंगल बाँचते, मौसम करे किलोल।।

सुंदर सपनों से लदी, मन की कोमल वृंत।
पर-भर में ही हो गई, सारी देह बसंत।।

फूलों जैसी देह है, खुशबू जैसा रूप।
फागुन जैसा मन लगे, चाहत जैसे धूप।।

जीवन वृंदावन हुआ, मन मेरा रसखान।
कण-कण में बजने लगी, मुरली की मृदु तान।।

हवा उड़ाकर ले गई, खुशबू-भरे दुकूल।
हमें मिले सौग़ात में, कुछ मुरझाए फूल।।

काँटे, आँसू, तितलियाँ, सपने और पलाश।
अपना तो बस है यही, जीवन का इतिहास।।

मन में पांडव-कृष्ण हैं, तन में कौरव-कंस।
दोनों के चिर द्वंद्व का, भोग रहा मैं दंश।।

कोई कहे रखैल है, कोई समझे सौत।
जीवन की अर्द्धांगिनी, लगे मुझे तो मौत।।

७ सितंबर २००९


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