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जीवन का नेपथ्य
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राजनीति के दोहे
रिश्तों में है रिक्तता
सूख गई संवेदना

 

 

जग सुरंग

जग सुरंग
है देह का पिंजरा,
प्राण विहंग।

धार्मिक ग्रन्थ
दिखला कहाँ पाए
सत्य का पन्थ!

अब तो छोड़ो
ये मन्दिर-मस्जिद,
दिलों को जोड़ो।

तरसाती है,
इच्छा स्वर्णमृग-सी
भरमाती है।

पाट वक्त का,
पीसे जौ-गेहूँ-मक्की,
जीवन चक्की।

कर्म की पूंजी
और भाग्य का खाता,
लिखे विधाता।

क़िस्मत सारी;
कोई तो है बन्दर,
कोई मदारी।

पर्दा उठाओ,
जारी रहे नाटक,
पर्दा गिराओ।

फूल औ' काँटे,
चुन-चुन सबको
उसी ने बाँटे।

बूँद से पानी,
नदी, फिर सागर,
यही कहानी।

समझा कौन!
वेद-पुराण-गीता,
सभी तो मौन।

तेरा-न-मेरा,
दुनिया है केवल
रैन-बसेरा।

२७ जुलाई २००९


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