कलजुगी दोहे
केवल परनिंदा सुने, नहीं सुने
गुणगान।
दीवारों के पास हैं, जाने कैसे कान ।।
सूफी संत चले गए, सब जंगल की
ओर।
मंदिर मस्जिद में मिले, रंग बिरंगे चोर ।।
सफल वही है आजकल, वही हुआ
सिरमौर।
जिसकी कथनी और है, जिसकी करनी और।।
हमको यह सुविधा मिली, पार उतरने
हेतु।
नदिया तो है आग की, और मोम का सेतु।।
जंगल जंगल आज भी, नाच रहे हैं मोर।
लेकिन बस्ती में मिले, घर घर आदमखोर।।
हर कोई हमको मिला, पहने हुए नकाब।
किसको अब अच्छा कहें, किसको कहें खराब।।
सुख सुविधा के कर लिये, जमा सभी
सामान।
कौड़ी पास न प्रेम की, बनते है धनवान ।।
चाहे मालामाल हो चाहे हो कंगाल
।
हर कोई कहता मिला, दुनिया है जंजाल।।
राजनीति का व्याकरण, कुर्सीवाला
पाठ।
पढ़ा रहे हैं सब हमें, सोलह दूनी आठ।।
मन से जो भी भेंट दे, उसको करो
कबूल।
काँटा मिले बबूल का, या गूलर का फूल।।
सागर से रखती नहीं, सीपी कोई
आस।
एक स्वाती की बूँद से, बुझ जाती है प्यास।।
४ फ़रवरी २००८ |