रिश्तों में है
रिक्तता अरी व्यवस्था
धन्य तू, रचती क्या-क्या रास।
रावण सत्ता भोगते, और राम वनवास।।
डाकूजी मुखिया बने, चोर-उचक्के
पंच।
अब सामाजिक न्याय का, खूब सजा है मंच।।
कुंठित है सब चेतना, लक्ष्यहीन
संधान।
टेक बने हैं देश की, अब बौने प्रतिमान।।
अभयारण्य आज बना, सारा भारत
देश।
संरक्षित शैतान हैं, संकट में दरवेश।।
गाँव बने हैं छावनी,
बस्ती-बस्ती जेल।
फिर भी होता है यहाँ, खुला मौत का खेल।।
आहत अपहृत रोशनी, अंधकार की
क़ैद।
खड़ी घेरकर आंधियाँ, पहरे पर मुस्तैद।।
वट-पीपल के देश में, पूजित आज
कनेर।
बूढ़ा बरगद मौन है, देख समय का फेर।।
बदले सभी विकास ने, जीवन के
प्रतिमान।
घूँघट अब करने लगा, बिकनी का सम्मान।।
अब वह आल्हा की कहाँ, रही
सुरीली तान।
कजरी, ठुमरी, फाग को, तरस गए हैं कान।।
बढ़ते-बढ़ते यों बढ़े, जीवन में
सन्त्रास।
नियति आदमी की बने, सुरा और सल्फ़ास।।
रिश्तों में है रिक्तता, सांसों
में सन्त्रास।
घर में भी अब भोगते, लोग यहाँ वनवास।।
२३ फरवरी २००९ |