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कैसे कह दूँ
ज़िन्दगी को मज़ाक में लेकर

तो लिखा जाता है
मेरी मजबूर सी यादों को
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संकलन में—
दिये जलाओ–कहाँ हैं राम

 

नफ़रत का बीज बोया

नफ़रत का बीज बोया
दरख़त कड़वाहटों का निकला
शाख़ों की पत्तियों में ज़हर था।

बरसों बद-दिमाग़ी का ज़ुल्म
कली टूटी, मसली, कुचली
ज़मींदार के ग़ुस्से में
कहर था।

धड़कनें दिल में क़ैद
सांसें गरम, चाहत बेचैन
हां यही तो बस प्यार का
पहर था।

सामने मुस्कुराहट खड़ी है
अपनापन, चाहत, गर्माहट
काली रात को भी कहा
सहर था।

लगाया ज़िन्दगी को गले
ज़ालिम से किया किनारा
ठहरे पानी को समझा उसने
लहर था।

नफ़रत का बीज बोया
दरख़त कड़वाहटों का निकला
शाख़ों की पत्तियों में ज़हर था।

१७ मई २०१०

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