|
o
दिलों मनों में
आज भी समाया अंधकार है,
दीप क्यों जलाऊँ मैं?
दिशा–दिशा को चीरता
अजीब हाहाकार है,
दीप क्यों जलाऊँ मैं?
सोच के
विशाल वो दायरे सिमट रहे
उदारता की रोशनी से लोग हैं कि हट रहे
रावणों के पक्षधर बढ़ रहे दिशा–दिशा
राम–राह चलने वाले
लोग नित्य घट रहे
नीति पर अनीति का हो रहा प्रहार है,
दीप क्यों जलाऊँ मैं?
व्यर्थ नफरतों की
लोग आँधियाँ चला रहे
भरोसे और यकीन की इमारतें गिरा रहे
समूचे विश्व को विचित्र मार्ग पर ढ़केल कर
ये कैसे युद्ध का
यहाँ पे सब बिगुल बजा रहे
जहाँ पहुंच गए हैं हम विनाश का कगार है,
दीप क्यों जलाऊँ मैं?
ड़राओ रावणों को
यों, न कर सकें दमन कभी
खुशी की जानकी का फिर न कर सके हरण कभी
जगमगा उठें हृदय वो रोशनी करो यहाँ
अँधेरों का कहीं भी
अब न लग सके ग्रहण कभी
ये न हो सका अगर तो व्यर्थ त्योहार है,
दीप क्यों जलाऊँ मैं?
—प्रवीण सक्सेना
|