अनुभूति में
श्रीकृष्ण माखीजा की
रचनाएँ—
अंजुमन में-
ऐसा क्यों
ज़िन्दग़ी के फासले
ज़िन्दग़ी ख्वाब
जी रहा है आदमी
टावर पर प्रहार
कल क्या हो
ज़िन्दग़ी नाच रही
गीतों में-
क्या बताऊँ मैं तुम्हें
जिन्दगी एक जुआ
ज़िन्दग़ी के ग़म
हसीन राहों में
संकलन में—
ज्योति पर्व–
दो दीप
दिये जलाओ–
आज खुशी से
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क्या बताऊँ मैं तुम्हें
क्या बताऊँ मैं तुम्हें मैं कौन हूँ क्या चाहता हूँ
दीप हूँ बुझता हुआ मैं
और जलना चाहता हूँ
ज़िन्दगी के नाम पर ज़िन्दा हूँ मैं जलता हुआ
क्या पता मंज़िल कहाँ बढ़ता हूँ मैं गिरता हुआ
जी नहीं सकता मगर मैं
और जीना चाहता हूँ
राह में मुझको मिले काँटे हज़ारों बार बार
नैन प्यासे ही रहे आँसू बहाए ज़ार ज़ार
अश्क आँखों में नहीं मैं
और पीना चाहता हूँ
एक झूठी आरज़ू से दिल को मैं बहला रहा
तार टूटे हैं बजाऊँ साज क्या ग़म खा रहा
सुर नहीं मिलता मुझे मैं
गीत गाना चाहता हूँ
ज़िन्दगी की शाम को अब भोर की आशा नहीं
दिल के अरमाँ बुझ गए इनकी कोई भाषा नहीं
फूल मुरझाता हुआ हूँ
मुस्कराना चाहता हूँ
काम तो करता हूँ मैं अच्छे बुरे हर दिन सभी
बोलता हूँ सच अगर डरता हूँ मैं फिर क्यों कभी
कह रहा हूँ कुछ मगर कुछ
और कहना चाहता हूँ
ग़म ने पाला है मुझे खुशियों से मैं वाक़िफ नहीं
मुझसे किसी को ग़म मिले मन्ज़ूर ये हरगिज नहीं
आदमी तो हूँ मगर इन्सान
बनना चाहता हूँ
२४ दिसंबर २००३ |