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प्राकृत मनुज हूँ
प्राकृत मनुज हूँ,
प्रकृति से जन्मा
तभी तो मुझे लुभाती है वसुंधरा
मैं हूँ अजन्मा, जन्मा या न जन्मा
यात्रा चिरंतन चल रही ना रुकी !
आऊँगा, जाऊँगा बार बार यों ही
जब तक है मन मयूर मेरा अटका
रहूँ अकेला? क्यों डेरे से भटका ?
प्रश्न मन को बींधते उत्तर खोजते!
लुभाते बरखा औ बादल सलोने
विहगों के टोलों के मन पे जादू टोने
है छुपता मेरा मन, बन के बिजुरिया
छिप घने को ताके जिसे भोली गुजरिया
बूँदें झिर झिर नभ से उतर झरेंगी
मिल नयन जल से वे पावन बनेंगीं
अश्रु नयन के भींज काजल ले घुलेंगीं
भोली बाला के गालों पे ढल बहेंगीं
बहा ले जायेगी नदिया जिन्हें उस पार
जहाँ बैठ बंसी बजाये कोई सुकुमार
प्यास बुझायेगा पी जब नदी का जल
मधु बूँद अंजुरी में भर कर वह पिएगा
प्रेम वारिधि समा जायेगी तृषा मिटेगी
प्राकृत मनुज की प्यास क्या तब बुझेगी ?
१६ सितंबर २०१३
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