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अनुभूति में शीतल श्रीवस्तव की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
एहसास
कल्पना
कैसे कह दूँ
जी हाँ मैं कवि हूँ
बहस
बहुत हो चुका
गीत लिख कर
पर इतना कैसे
प्रगति
पुलिस और रामधनिया
सहजता

संकलन में
ज्योति पर्व - दीपकों की लौ

 

सहजता

आज फिर से
खेलने को जी चाह गया
अचानक बैठे-बैठे
उन खेलों को
जिन्हे कभी खेला था बचपन में
बरम बाबा वाले पीपल के पेड़ के
नीचे
कितने सहज कौतुकता वस
फौड़ दिया करते थे
वहाँ रखे हाँडी व घरिया को
जो, आज समझता हूँ
मिशिर बब्बा की जीवन की आस्था थी
और किस तरह
घंट हवा वाले आम के पेड़ पर टँगी
गगरी पर निसाना लगाया करते थे
जिसमें रखे पानी को
कितनी दिवंगत आत्माएँ पी कर
लू भरी दुपहरिया में
प्यास बुझाया करती थीं
कितना सहज था यह सब
और कितना सहज था स्वीकारना
दादी का डरवाना
आज फिर से
सहज हो जाने को जी चाह गया
अचानक यूँ ही बैठे-बैठे
सहज होना अब इतना
सम्भवत: सरल नहीं है
या कि उन खेलों को फिर से
दुहराना
दादी का बताया डर
इस कदर अन्दर पैठ गया कि
मिशिर बब्बा की तरह
मेरी भी
वह एक आस्था बन गयी
और गांव आते जाते, रास्ते में
उस पीपल के पेड़ को देख कर
अनायास ही
बरम बाबा की जय
मन में
फूट जाया करती है
फिर भी
अचानक यूँ ही बैठे-बैठे
कौंधे क्षणिक चाह को
बचपना कहना भी इतना
सम्भवत: सरल नही है
और लो!
उन खेलों को
आज
फिर से खेलने को
जी चाह गया
अचानक यूँ ही बैठे-बैठे।

१ दिसंबर २००१

 

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