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अनुभूति में शीतल श्रीवस्तव की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
एहसास
कल्पना
कैसे कह दूँ
जी हाँ मैं कवि हूँ
बहस
बहुत हो चुका
गीत लिख कर
पर इतना कैसे
प्रगति
पुलिस और रामधनिया
सहजता

संकलन में
ज्योति पर्व - दीपकों की लौ

 

बहस

बहुत लम्बी बहस चली है
मुझे समझने के लिये
मुझे जानने के लिये
अपनी अस्थियों को तोड
बाहर आ गया हूँ
मुझे देखो
अब मुझे समझो
मैं देख पा रहा हूँ
तुम्हारी अस्थियों के पीछे
मचल रहा है कोई
पहली बार
अपना देख कर
पहचान कर
पर तुम
बर्दाश्त नही कर पा रहे
शायद
मेरी नग्नता को
तुम्हारे ये वाद तुम्हारे दर्शन
और तुम्हारी यह बहस
एक बडी दिलचस्प दिल्लगी है
हर चीज का नाम रख देना
तुम्हारी एक परम्परागत
शरारत है
हर चीज को एक रूप दे देना
तुम्हारी एक परम्परागत
आदत है
जिसका कोई नाम नहीं
उसे तुम नही जानते
जिसे पहले नहीं देखा
उसे नहीं पहचानते
कितना सरल है
तुम्हारा यह समीकरण
और
कितनी जटिल है
मेरी यह नग्नता
अपनी अस्थियों में फिर से
वापस चला जाऊँ
किसी नाम से
तभी मुझे जानोगे
किसी रूप में
तभी मुझे पहचानोगे
मुझे मालूम है
मेरे जाने के बाद
बाहर
फिर से
चल पडेगी एक लम्बी बहस
मुझे ही समझने के लिये
मुझे ही जानने के लिये

१ दिसंबर २००१

 

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