अनुभूति में
शीतल श्रीवस्तव की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
एहसास
कल्पना
कैसे कह दूँ
जी हाँ मैं कवि हूँ
बहस
बहुत हो चुका
गीत लिख कर
पर इतना कैसे
प्रगति
पुलिस और रामधनिया
सहजता
संकलन में
ज्योति पर्व -
दीपकों की लौ
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पर इतना कैसे
पर इतना कैसे समझा लूँ
अपने को
कि तुम अब बाजी हार चुकी
मैने तो हर बार तुम्हारी जीत मनाई
कसमे खाए कितने थे सच बोलेा
उन वादों को कैसे दफन करूँ
किये जो हमने तुमने थे
अनजाने में
कैसे तुम अब कह पाओगे
आँखो से
जो नहीं आ सके थे अब तक
अधरों तक
आँख मिचौली भी अब
बन्द कर दिया
फिर कैसे अब खेलेंगे
उन खेलों को
खेल चुके जो हम तुम
उन गलियों में
तेरे साहस से
अब साहसी मै कैसे हूँगा
जीतेगे कैसे अब उन युद्धों को
जीत चुके जो हम तुम
जीवन के रण में
अजब तुम्हारा भोला पन है
जटिल तुम्हारी नादानी
कैसे अब बूझेंगे उन अर्थो को
जिन पर गीत कई लिख गये
आओ फिर से नए बन चलें
भूलें बीती बातों को
हार जीत का नया फैसला
करें उन्ही शर्तों पर
जिन पर हम तुम बंध गए थे
आने वाले हर जीवन में
१ दिसंबर २००१ |