अनुभूति में
शीतल श्रीवस्तव की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
एहसास
कल्पना
कैसे कह दूँ
जी हाँ मैं कवि हूँ
बहस
बहुत हो चुका
गीत लिख कर
पर इतना कैसे
प्रगति
पुलिस और रामधनिया
सहजता
संकलन में
ज्योति पर्व -
दीपकों की लौ
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बहुत हो चुका
सच अब बहुत हो चुका
क्या जिद तुम तब तोड़ोगी
छोड़ चुकेंगे जब
तुझे मनाना
ऐसा भी क्या
आओ ढूढें हम तुम
जी बहलाने का
कोई नया बहाना
बहुत कठिन है चलना
देखो राह सकर है
साथ तुम्हारा बहुत जरूरी
गहन गूढ डगर है
मत यूं बैठो अलस भाव से
ऐसा न हो
मंजिल आ कर खुद ही कह दे
अब तुम क्या पाओगे मुझको
रह जाएगा फिर केवल
बस तीर चलाना
शर्मा लेना जी भर फिर कभी
आज मिलंे आओ हम तुम
तोड सभी बन्धन को
और बनांए नये डगर
जिन पर
चलने को लालायित हो जाये
आने वाला हर मानव
यही हकीकत
मत समझो
इसको केवल फुसलाना
१ दिसंबर २००१ |