अनुभूति में
शीतल श्रीवस्तव की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
एहसास
कल्पना
कैसे कह दूँ
जी हाँ मैं कवि हूँ
बहस
बहुत हो चुका
गीत लिख कर
पर इतना कैसे
प्रगति
पुलिस और रामधनिया
सहजता
संकलन में
ज्योति पर्व -
दीपकों की लौ
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कल्पना
आँखे मूँद कर
कितना रस है तुझे याद करने में
सब कुछ भूल जाता है
बच जाता है वह मानवीय धरातल
जहाँ हम और तुम
अपने आदर्शों पर बैठ
देखते हैं जगत को उपहास की दृष्टि से
कितना दिव्य होता है वह क्षण
कितना आनन्दमय होता है वह क्षण
सच बेलो
जब तुम मिलती हो
वैसी ही क्यों नही होती
उस धरातल को खींच
इस फैले हुए उजाले मे
क्यों नहीं बिछा देती
क्या आकाश केवल एक भ्रम है
या दृष्टि की सीमा
तुम इतनी कठोर क्यों हो जाती हो
मैं पाना चाहता हूँ
तुम्हारे उस अस्तितव को
जिसके ऊपर
रंग बिरंगी साडियाँ डाल कर
तुम अपने को बदला करती हो
यह आडम्बर रहने दो
रात के अंधेरे के लिये
१ दिसंबर २००१ |