अनुभूति में
पूर्णिमा वर्मन की रचनाएँ -
छोटी कविताओ में-
खिड़की पर बोगनविला- (११ कविताएँ)
गीतों में-
आवारा दिन
कोयलिया बोली
कोरे खाली नुक्कड़
खोया खोया मन
चोंच में आकाश
ताड़ों की क्या बात
तितलियों के दल
माया में मन
मेरा पता
राम भरोसे
शहरों की मारामारी में
सड़क
हरी घाटी
हवा में घुल रहा विश्वास
अंजुमन में-
पर्वत के देवदार
हाइकु में-
होली हाइकु
कुछ और होली हाइकु
दोहों में-
बरसाती दोहे
नए साल के दोहे
कहें तितलियाँ 'वक्त के साथ'
संग्रह से
आधी रात
इस मोड़ पर
कितना अच्छा लगता है
नाम लो मेरा
बरगद
बारिश बारिश नभ
रंग
रेत सागर
रेलगाड़ी में
वक्त के साथ
सड़क दर सड़क
स्वर्ण हिरण
क्षणिकाओं
में-
उदासी, डर, समंदर, चुप, रस्ता, आँसू
वैशाख के दिन (छह
क्षणिकाएँ)
कविताओं में-
आज दिन
गाँव में अलाव
एक और साल
मेरे गाँव में
मौसम की आहट
संकलन में-
वसंती हवा -
एक गीत और कहो
धूप के पाँव -
ग्रीष्म के स्तूप
वर्षा मंगल में -
बेढंगा मौसम
ज्योति पर्व -
मंदिर दियना बार
आओ मिल कर दीप जलाएँ
दिया
गाँव में अलाव-
सर्दी में नया साल
शुभकामना- रंगों की
छोटी कविता-
जेठ में
क्षणिका -
धूप कनी
धन्यवाद
नया साल-नया साल मंगलमय हो
-नए साल का नव दुलार
जग का मेला-जग का मेला
होली है-होली के दोहे
कैमरे में कैद होली
ममतामयी-नमन में मन
दिये जलाओ-एक दीप मेरा
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खिड़की पर बोगनविला
(ग्यारह कविताएँ)
१.
सुबह सुबह
सबसे पहले उठती है बोगनविला
खिड़की के बाहर
बाँह फैलाकर बुलाती हुई
जैसे नन्हें बच्चे को
बुलाती है माँ
बोगनविला जागती है
सूरज से भी पहले
२.
खिड़की
बोगनविला को झुलाती है बाहों में
आकाश को पकड़ लाती है कमरे में
उजाले को देती है नई दिशाएँ
और
अंधेरे को बुहार कर फेंक देती है
बाहर
३.
खिड़की बिछाती है
कमरे में धूप की चादर
बोगनविला बाँधती है उसके ओर छोर
गर्म हवा के गुब्बारे की तरह
उड़ान को तैयार हो जाती है कल्पना
यों ही कमरे में बैठे
४.
धूप को
दीवार पर चिपकाती है बोगनविला
खिड़की तार पर आकाश सुखाती है
मैं कविताएँ तहाती हूँ
पन्नों में
दिन गुज़रता है
हौले
५.
बोगनविला झरते हैं
रुक कर ठहरते हैं
खिड़की की देहरी पर
उचक कर
उछलते हैं नीचे
भागते फिरते हैं आँगन में
डाली बाँह हिला हिला कर
बरजती है
खिड़की मुसकाती है
६.
खिड़की पर खिली है बोगनविला
उमगा है रूप का दरिया
खिड़की के पार है
सौंदर्य
खुलकर बिखरता हुआ
खिड़की भीतर
सिमटकर निखरता हुआ
७.
खिड़की में फूल हैं
फूलों में जीवन
दीवार के सन्नाटे को
भरती है
बोगनविला
८.
खिलती है
बोगनविला
झूमते हैं उल्लास के फूल
भरते हुए
रंग मौसम में
कल ये फूल ना भी रहें
उल्लास!
रहेगा फिर भी नित्य नए फूलों में
उल्लास रुकता नहीं
खिड़की के सम्मान में
आत्मा में
व्यक्तित्व में
निरंतर घुलता है
फूटकर झलकता है
खिड़की के सौंदर्य में
९.
मैं हूँ
खिड़की है
और बोगनविला
मैं और बोगनविला दोनो बतियाते हैं
हँसते खिलखिलाते हैं
खिड़की चुप रहती है
सिर्फ़ मुसकुराती है
१०.
आसमान खो गया है रात में
सो गया है आँगन
ऊँघने लगी हैं दीवारें
धीमी पड़ गई है रात भर जलनेवाली बत्तियाँ
बोगनविला जागी है अबतक
मेरे सोने से पहले
कहने को
शुभ रात्रि
११.
खिड़की पर सरसराती
करवटें लेती है बोगनविला
“चलो नीहारिकाओं तक चलें...”
“जागी हो अभी तलक?”
”हाँ निर्मल चाँदनी जो है आकाश की राहों में”
और हम चल पड़े
चाँद की नाव पर
१८ मार्च २०१३
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