कैमरे में रंग था
या रंग में था कैमरा
यह पता करना कठिन थाझर रहे
थे रंग हाथों से
या बस रहे थे हाथ रंगों में
रंग का त्यौहार था
या
हार में गूँथे हुए थे रंग
देखकर भी जान पाना
उस समय मुमकिन नहीं था
कोई हीरामन कहीं अंदर बसा था
कोई हरियल सुआ हाथों पर जमा था
कोई पियरी उड़ रही थी कैमरे में
कोई हल्दी बस रही थी उँगलियों में
रास्तों पर रंग बिखरे थे हवा में
हर कहीं उत्सव की धारें आसमाँ में
खुशबुओं के थाल नजरों से गुजरते
और परदे पार चूड़ी काँच की
बजती खनक सी
इक हँसी...
जाती थी दिल के पार- गहरी
उस हँसी से लिपट पियरी
नाचती थी
उस हँसी में डूब हीरामन रटा करता था-
होली...
एक पट्टा कैमरे
में और वह पट्टा गले में
कैमरे में गले से लटका हुआ वह शहर सारा
कैमरे में कैद होली
होलियों में शहर घूमा
रंग डूबा- कैमरा यों ही आवारा
कैमरे में कैद थी होली कि या फिर
होलियों में कैद था वह कैमरा
कहना कठिन था
- पूर्णिमा वर्मन
२१ मार्च २०११