अनुभूति में निर्मल गुप्त की
रचनाएँ-
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मेरी कविता में
मेरा नाम
मैं जरा जल्दी में हूँ
रामखिलावन जीना सीख रहा है
सुबह ऐसे आती है
छंदमुक्त में-
इस नए घर में
एक दैनिक यात्री की दिनचर्या
एहतियात
गतिमान ज़िंदगी
घर लौटने पर
डरे हुए लोग
तुम्हारे बिना अयोध्या
नहाती हुई लड़की
नाम की नदी
पहला सबक
फूल का खेल
बच्चे के बड़ा होने तक
बयान
बाघखोर आदमी
मेरे ख्वाब
रोटी का सपना
लड़कियाँ उदास हैं
हैरतंगेज़
रेलवे प्लेटफ़ार्म |
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रामखिलावन जीना सीख रहा है
तवा चूल्हे पर था
रामखिलावन की तर हथेलियों पर
रोटी ले रही थी आकार
तभी सीधे गाँव से खबर चली आई
बड़के चाचा नहीं रहे।
अब वह क्या करे
रोटी बनाये
कुछ खाए या
फिर शोक मनाये।
रामखिलावन अपने गाँव से इतनी दूर
अपनों को रुलाकर
उनकी भूख की खातिर ही तो आया है
वह यहाँ गुलछर्रे उड़ाने
रोने बिसूरने नहीं आया।
वह कमाएगा तभी तो
कुछ खायेगा।
घर गाँव के लिए
उसमें से कुछ बचा पायेगा।
रामखिलावन गाँव छोड़ चला तो आया
पर उससे गाँव छूटा कहाँ?
वह यहाँ सुदूर शहर में आ धमकता है
खूबसूरत यादें लिए।
कभी आँखों के लिए पानी
तो कभी घर लौट आने की
मनुहार लिए।
गाँव से कभी सिसकियाँ आती हैं
तो कभी हौंसला
और कभी कभी दुखदायी ख़बरें भी।
रामखिलावन हठयोगी है।
वह बिना हथियार के भी
लड़ना सीख चुका है।
अपना काम करना कभी नहीं भूलता।
वह दुःख सुख की
परंपरागत परिभाषा से
बाहर निकल आया है
पर निष्ठुर नहीं हुआ है वह।
रामखिलावन के भीतर
अभी भी उसका गाँव बसा है
जिसकी याद में वह सुबकता भी है,
मन ही मन रीझता भी है।
शोकाकुल भी होता है,
वहाँ की हर अनहोनी पर।
पर वह अपने काम के समय
सिर्फ काम करता है।
बाकी बचे खुचे समय में वह वही
गाँव वाला रामखिलावन होता है,
जिसे बड़के चाचा का यों चले जाना
बहुत हिला देता है।
पर उसके हाथ इस खबर को पाकर भी
थमते नहीं, रोटी बनाते हैं।
वह रोटियों का मर्म जानता है,
उन्हें खाए बिना तो
ठीक से रो पाना भी मुश्किल है।
रामखिलावन बहुत उदास है।
पर वह जुबानी मातमपुर्सी के लिए
दौड़ा दौड़ा गाँव नहीं जायेगा।
वह अब शहर में रह कर
सलीके से जीना सीख रहा है।
९ दिसंबर २०१३ |