एक दैनिक यात्री की दिनचर्या
एक आदमी सकपकाया-सा
लौटता है अपने घर
तब वह तय करता है केवल
एक यातना शिविर से
(जिसे वह दफ्तर कहता है)
दूसरे यातना शिविर
(जिसे वह घर कहता है)
तक की यात्रा
और एक रेलगाड़ी
संपूर्ण लौह-चेतना के साथ
दौड़ती रहती है
उसके मानस पटल पर।
वह जब खाना खा रहा होता है
चुपचाप
सिर झुकाए किसी अपराधी-सा
तब स्मृति में आ खड़ा होता है
चपरासी
अफ़सर का पत्र लिए
दफ़्तर विलंब से आने का
स्पष्टीकरण माँगता।
वह जब बिस्तर पर ढेर हो
गठरी-सा लुढ़कता है
तब उसकी बंद पलकों के
सामने
निरीह पत्नी का आशंकित चेहरा
जवानी की दहलीज़ पर
ठिठकी खड़ी पुत्री
और निरंतर उद्दंड होते
पुत्र का चित्र सरकने लगता है।
तब वह कभी देना चाहता है
पत्नी को विश्वास भरा
स्नेहिल स्पर्श
कभी पढ़ लेना चाहता है
बिटिया की चंचल आँखों में
ठहरी महत्वाकांक्षा की पाती
और कभी बता देना चाहता है
अपने बेटे को
दुनियादार बनने के सभी गुर
पर वह कर कुछ भी नहीं पाता
थकान से सराबोर शरीर
बिस्तर पर फड़फड़ाता है रात भर
और फिर घड़ी के अलार्म के साथ
गठरी खुलने लगती यंत्रवत
धीरे-धीरे तब्दील हो जाती है
एक ज़िंदा आदमी में
और कुछ ही देर बाद
जब एक रेलगाड़ी सरकती है
लोहे की पटरियों पर
आदमी के मानस पटल पर ठहरी
रेलगाड़ी
उसके साथ हो लेती है
दो गतियाँ एकाकार होती हैं
और उनके बीच से
एक आदमी फरार होकर
जा पहुँचता है उसी
यातना शिबिर में
जहाँ से वह लौटा था
कल साँझ ढले।
१ जून २००६
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