अनुभूति में निर्मल गुप्त की
रचनाएँ-
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नाम की नदी
फूल का खेल
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रोटी का सपना
छंदमुक्त में-
इस नए घर में
एक दैनिक यात्री की दिनचर्या
एहतियात
गतिमान ज़िंदगी
घर लौटने पर
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नहाती हुई लड़की
पहला सबक
बच्चे के बड़ा होने तक
बयान
मेरे ख्वाब
लड़कियाँ उदास हैं
हैरतंगेज़
रेलवे प्लेटफ़ार्म |
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फूल का खेल
आज सुबह नींद से जागा
देखा खिडकी से झाँकता
एक नन्हा- सा लाल फूल
जैसे कोई शैतान बच्चा
एडियो पर उचक कर
झाँके खिड़की से
और देखते ही देखते भाग जाए
खिलखिलाता हुआ।
यह नन्हा लाल फूल
आज ही तो खिला है
खिड़की के आसपास रखे
किसी गमले में।
दिन भर यह फूल
यूँही खेलेगा
ताका झाँकी का सनातन खेल
और खेल ही खेल में
भर देगा मेरे एकाकीपन को
अपनी दिव्य गंध से।
साँझ ढले यह फूल
तिरोहित हो जाएगा
और फूल की सहचरी
हरी पत्तियाँ
देर तक हिलती रहेंगी
विदाई का दंश लिये
चुपचाप।
लेकिन स्मृतियों में
टँका रहेगा यह फूल
अपनी भव्य गरिमा के साथ
और मै खेल लिया करूँगा
जब तब इसके साथ
ताका झाँकी का अनूठा खेल।
११ अप्रैल २०११
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