अनुभूति में निर्मल गुप्त की
रचनाएँ-
नई कविताओं में-
तुम्हारे बिना अयोध्या
नाम की नदी
फूल का खेल
बाघखोर आदमी
रोटी का सपना
छंदमुक्त में-
इस नए घर में
एक दैनिक यात्री की दिनचर्या
एहतियात
गतिमान ज़िंदगी
घर लौटने पर
डरे हुए लोग
नहाती हुई लड़की
पहला सबक
बच्चे के बड़ा होने तक
बयान
मेरे ख्वाब
लड़कियाँ उदास हैं
हैरतंगेज़
रेलवे प्लेटफ़ार्म |
|
बयान
मैंने अपने ईश्वर को
धीमा ज़हर देकर
धीरे-धीरे मारा है
हो यह भी सकता था
एक धारदार चाकू
हवा में लहराता
और गूँजती एक चीख
देर तक वातावरण में
लेकिन ऐसा हो न सका
मैं उसे इस तरह मारता
तो भला कैसे?
मैंने जब-जब ऐसा करना चाहा
मेरी माँ पूजा घर में बैठी थी
उसी ईश्वर के समक्ष
नतमस्तक।
२५ फ़रवरी २००८
|