अनुभूति में निर्मल गुप्त की
रचनाएँ-
नई कविताओं में-
तुम्हारे बिना अयोध्या
नाम की नदी
फूल का खेल
बाघखोर आदमी
रोटी का सपना
छंदमुक्त में-
इस नए घर में
एक दैनिक यात्री की दिनचर्या
एहतियात
गतिमान ज़िंदगी
घर लौटने पर
डरे हुए लोग
नहाती हुई लड़की
पहला सबक
बच्चे के बड़ा होने तक
बयान
मेरे ख्वाब
लड़कियाँ उदास हैं
हैरतंगेज़
रेलवे प्लेटफ़ार्म |
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हैरतअंगेज़
सात समन्दरों की
मिथकीय दूरी को लाँघ
एक नाजुक से धागे का
या चावल के चंद दानों
और रोली का
बरस दर बरस
मुझ तक निरापद चला आना
हैरतअंगेज़ है !
खून से लबरेज़
बारूद की गंध को
नथुनों में भरे
इस सशंकित सहमी दुनिया में
तेरे नेह का
यथावत बने रहना
हैरतअंगेज़ है !
दो संस्कृतियों की
सनातन टकराहट के बीच
सूचना क्रांति के शोरोगुल
और निजत्व के बाज़ार में
मारक प्रतिस्पर्धा के बावजूद
मानवीय संबंधों की उष्मा की
अभिव्यक्ति का
सदियों पुराना दकियानूस तरीका
अभी तक कामयाब है
हैरतअंगेज़ है !
तमाम अवरोध हैं फिर भी
कुछ है जो बचा रहता है
किसी पहाडी नदी पर बने
काठ के पुल की तरह
जिस पर से होकर
युग गुजर गए- निर्बाध.
भावनाओं की आवाजाही की तकनीक
अबूझ पहेली है अब तक
हैरतअंगेज़ है !.
मेरी बहन !
कोई कहे कुछ भी
तेरे स्नेह -सिक्त
चावल के दानों से
प्रवाहित होती स्नेह की बयार का
तेरे भेजे नाजुक से धागे
के जरिये
मेरे मन के अतल गहराइयों में
तिलक बन कर सज़ जाना
बरस दर बरस
कम से कम मेरे लिए
कतई हैरतअंगेज़ नहीं है.१४ दिसंबर २००९ |