अनुभूति में
बृजेश नीरज
की रचनाएँ-
नयी रचनाओं में-
ढलती साँझ
निहितार्थ समझने होंगे
मुट्ठी की ताकत
वे लोग
सब खामोश हैं
गीतों में-
कुछ अकिंचन शब्द हैं बस
ढूँढती नीड़ अपना
मछली सोच विचार कर रही
सो गए सन्दर्भ तो सब मुँह अँधेरे
स्वप्न की टूटी सिलन
हाकिम निवाले देंगे
छंदमुक्त में-
क्रंदन
कुएँ का मेंढक
गर्मी
दीवार
शब्द
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वे लोग
वे तीसरी दुनिया के लोग
मनुष्य होने का कोई दावा नहीं करते
उनके चेहरे पर उभरी हड्डियों के बीच
नजर आती हैं सिर्फ आँखें
जिन्हें इस दुनिया में
खूबसूरती की तलाश नहीं
शोषण, अत्याचार की धुरी पर टिकी दुनिया
खूबसूरत हो भी कैसे सकती है
पूँजी की अफीमी पिनक में डूबी
सामंती अलौकिकता के अन्धकार में जीती
इस दुनिया से परे
त्रासदी में जीती यह आबादी
महसूस नहीं कर पाती
अपना मानवीय अस्तित्व
गरीबी और भुखमरी से बदहाल
इस जीवन को
कोई उम्मीद नहीं
इस जगमगाती दुनिया से
मांसल नहीं हैं
इस दुनिया की औरतें
गंदे से गदेले
हाड़-माँस के पुतले भर हैं
लोगों की छाती से झाँकती हैं पसलियाँ
रीढ़ से चिपककर
पीठ से एकाकार हो गया है पेट
वे जानते हैं कि
इस धरती का कुछ भी
उनका नहीं
यहाँ की सम्पदा में
उनकी हिस्सेदारी नहीं
वे जानते हैं कि
वे पैदा हुए हैं
इस दुनिया में
भूख को जिन्दा रखने के लिए
उनके लिए विकास
एक पूरी गोल रोटी है
जो उनके हाथों की पहुँच से
बहुत दूर
पूरनमासी की रात
आसमान पर टँगी होती है...
१ दिसंबर २०१६
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