अनुभूति में
बृजेश नीरज
की रचनाएँ-
गीतों में-
कुछ अकिंचन शब्द हैं बस
ढूँढती नीड़ अपना
मछली सोच विचार कर रही
सो गए सन्दर्भ तो सब मुँह अँधेरे
स्वप्न की टूटी सिलन
हाकिम निवाले देंगे
छंदमुक्त में-
क्रंदन
कुएँ का मेंढक
गर्मी
दीवार
शब्द
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सो गए सन्दर्भ तो सब मुँह अँधेरे
सो गए सन्दर्भ तो सब
मुँह-अँधेरे
पर कथा
अब व्यर्थ की बनने लगी है
गौण होते
व्याकरण के
प्रश्न सारे
रात
भाषा इस तरह
गढ़ने लगी है
संकुचन यूँ मानसिक
औ भाव ऐसे
नीम
गमलों में
सिमटकर रह गई है
भित्तियों की
इन दरारों के अलावा
ठौर पीपल को
कहाँ अब
रह गई है
बरगदों के बोनसाई
हैं विवश से
धूप में
हर देह अब
तपने लगी है
व्योम तो
माना
सदा ही है अपरिमित
खिड़कियों के
सींखचे
अनजान लेकिन
है धरा-नभ
के मिलन का
दृश्य अनुपम
चौखटों को कब हुआ
आभास लेकिन
ओस से ही
प्यास को अपनी बुझाने
यह लता
मुंडेर पर
चढ़ने लगी है
१० नवंबर २०१४
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