अनुभूति में
बृजेश नीरज
की रचनाएँ-
नयी रचनाओं में-
ढलती साँझ
निहितार्थ समझने होंगे
मुट्ठी की ताकत
वे लोग
सब खामोश हैं
गीतों में-
कुछ अकिंचन शब्द हैं बस
ढूँढती नीड़ अपना
मछली सोच विचार कर रही
सो गए सन्दर्भ तो सब मुँह अँधेरे
स्वप्न की टूटी सिलन
हाकिम निवाले देंगे
छंदमुक्त में-
क्रंदन
कुएँ का मेंढक
गर्मी
दीवार
शब्द
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सब खामोश हैं
सब खामोश हैं
चुपचाप सहते हैं सब
सब कुछ
बारिश में भीगती रही चिड़िया
भारी हो गए पंख
स्थगित रही उड़ान
बह गया घोंसला
सर्दियों में काँपती रहीं पत्तियाँ
ठिठुरते रहे फूल
पाला खा गया कलियों, कोंपलों को
धुँध में गुम हो गया सारा हरापन
धीरे-धीरे गर्म होते रहे दिन
तपती रहीं रातें
चुपचाप पिघलती रही सड़क
बहता-सूखता रहा पसीना
बढ़ती रही गंध
लेकिन छाँव की आस में दीवारें चुप हैं
मौसम लगातार बदल रहा है
पिघल रही है शिखरों पर जमा बर्फ
सूख रही हैं नदियाँ
बढ़ रही है रेत
बंजर होती जा रही है जमीन
विचार भटक गए राह
सन्दर्भ पीछे छूट गए कहीं
हाथ से रेत की तरह फिसलते प्रसंग
बौने हो गए अर्थ
लम्बे होते शब्दों के साए
टुकड़ों में बँटी धरती पर
झण्डे के रंगानुसार
गढ़ ली गईं नयी परिभाषाएँ
माहौल बदल रहा है
भूख बढ़ रही है
लेकिन सब खामोश हैं
भारी हो गया है खामोशी का यह बोझ
बोलना जरूरी है अब
कुछ बोलो
समय आ गया है
हवा बहो!
१ दिसंबर २०१६
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