अनुभूति में
बृजेश नीरज
की रचनाएँ-
नयी रचनाओं में-
ढलती साँझ
निहितार्थ समझने होंगे
मुट्ठी की ताकत
वे लोग
सब खामोश हैं
गीतों में-
कुछ अकिंचन शब्द हैं बस
ढूँढती नीड़ अपना
मछली सोच विचार कर रही
सो गए सन्दर्भ तो सब मुँह अँधेरे
स्वप्न की टूटी सिलन
हाकिम निवाले देंगे
छंदमुक्त में-
क्रंदन
कुएँ का मेंढक
गर्मी
दीवार
शब्द
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निहितार्थ समझने होंगे
समय-चक्र के साथ
पा तो लिया रूप-रंग
चिकनी चमड़ी
लेकिन जीव मानव हुआ कब
आदम ही हैं इन्द्रियाँ
सोच में वीभत्स चेहरे
विचारों में खीसें निपोरते
बंदरों से झपट्टा मारते
सूँघते ही मादा गंध
फड़कने लगते हैं नथुने
अब यहाँ बादल नहीं छाते
फुहारें नहीं पडतीं
नर्म ठंडी हवा नहीं है
नदी सूख गई
रासायनिक बदलाव हो रहे हैं
दरक गई धरती
फैल रहा है जहर
वातावरण में
जड़ों से होता पूरे शरीर में
जंगल में
फैल रही है देह-पिपासा
बिटिया
मौसम के इस परिवर्तन को जानो
समझो रासायनिक परिवर्तनों को
मुँह से टपकती लार
आँखों में छिपी डोरियों को पहचानो
तुम्हें जीने के लिए
भाषा-भावों के निहितार्थ समझने होंगे
१ दिसंबर २०१६
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