मन (१६
दोहे)
मन लोभी मन लालची, मन चंचल मन
चोर
मन के हाथ सभी बिके, मन पर किस का ज़ोर
तेरे मन ने जब कही, मेरे मन की
बात
हरे-हरे सब हो गये, साजन पीले पात
जिसका मन अधीर हुआ, सुनकर मेरी
पीर
वो है मेरा राँझना, मैं हूँ उसकी हीर
तेरे मन पहुँची नहीं, मेरे मन
की बात
नाहक हमने थे लिए, साजन फ़ेरे सात
वो बैरी पूछै नहीं, अब तो मेरी
जात
जिसके कारण थे हुए, सारे ही उत्पात
सुनले साजन आज तू, एक पते की
बात
प्यार कभी देखे नहीं, दीन-धरम या जात
मन की मन ने जब सुनी, सुन साजन
झनकार
छनक उठी पायल तभी, खनके कंगन हज़ार
मन फकीर है दोस्तों, मन ही
साहूकार
मुझ में रह उनका हुआ, मन ऐसा फनकार
मन की मन से जब हुई, साजन थी
तकरार
जीत सका तू भी नहीं, गई तभी मैं हार
मन की करनी देखकर, बौरा गया
दिमाग
संबंधों में लगी तभी, बैरन कैसी आग?
मनवा जब समझा नहीं, प्रीत प्रेम
का राग
संबंधों घोड़े चढ़ा, तभी बैरी दिमाग
मन की हारे हार है, सभी रहे
समझाय
समझा,समझा सब थके, मनवा समझे नाय
मन की लागी आग तो, वो ही सके
बुझाय
जिसके मन में, दोस्तो, प्रीत अगन लग जाय
प्रीतम के द्वारे खड़ा, मनवा हुआ
अधीर
इतनी देर लगा रहे, क्या सौतन है सीर
मन औरत, मन मरद भी, मन बालक
नादान
नाहक मन के व्याकरण, ढूँढ़े सकल जहान
मन तुलसी मीरा भया,मनवा हुआ
कबीर
द्रोपदी के श्याम-सखा, पूरो म्हारो चीर
१६ मार्च २००९ |