अनुभूति में
डॉ.
मधु प्रधान की रचनाएँ-
नई रचनाओं में-
चुपके चुपके
जिंदगी मीठी गजल है
जुगनुओं की तरह
बैठे हैं हम आज अकेले
वो लम्हा
गीतों में-
आओ बैठें नदी किनारे
तुम क्या जानो
पीपल की छाँह में
प्रीत की पाँखुरी
प्यासी हिरनी
मेरी है यह भूल अगर
रूठकर मत दूर जाना
सुमन जो मन
में बसाए
सुलग रही फूलों की घाटी
अंजुमन में-
जहाँ तक नज़र
जेठ की दोपहर
नया शहर है
लबों पर मुस्कान
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जहाँ तक नजर
जहाँ तक नजर जाती है कतारें ही कतारें हैं
बसी यह कौन सी बस्ती दीवारें ही दीवारें है
पल रहे गर्द में बच्चे तरसते रोटी कपड़े को
मगर कुछ के लिये हरसूँ बहारें ही बहारें हैं
घटती जा रहीं है कीमतें बस आदमी की ही
होती मूल्य-वृद्धि पर अनेकों सेमिनारें हैं
ये दरिया दूर से कितना हसीं लगता है ए यारों
मगर, घड़ियाल, भवरें है किनारों पर कगारें हैं
फिसल जाते हैं अक्सर रेत के मानिन्द मुट्ठी से
जो लम्हें बरसों से हमने सजाये हैं संवारे हैं
डर है कहीं खो जाये न ये देश गाँवों का
उग रहे ईंट के जंगल मीनारों पर मीनारें हैं
२२ नवंबर २०१० |