मेरे घर के बाहर अक्सर
मेरे घर के बाहर अक्सर
आ जाते हैं रिक्शे वाले,
दो पल रुक कर आपस में
बतिया जाते हैं रिक्शे वाले।
जेठ माह की दोपहरी में
जब कर्फ़्यू-सा लग जाता है,
अमलतास की छाया में
सुस्ता जाते हैं रिक्शे वाले।
गंगा-पार, बदायूँ, छपरा,
भागलपुर, और बर्दवान के,
कितने किस्से आपस में
दोहरा जाते हैं रिक्शे वाले।
रिक्शा धोना, कुछ पल सोना,
बीड़ी पीना, कपड़े सीना-
कितने सारे काम यहाँ
निपटा जाते हैं रिक्शे वाले।
मिले सवारी तो झटपट
पैसे तय कर चल पड़ते हैं,
वरना दो-दो घण्टे यहीं
बिता जाते हैं रिक्शे वाले। १८ अगस्त २००८ |