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बागों में
बाग़ों में प्लॉट कट गए,
अमराइयाँ कहाँ!
पूरा बरस ही जेठ है, पुरवाइयाँ कहाँ!
उस डबडबाई आँख मे उतरे तो खो
गए,
सारे समंदरों में वो गहराइयाँ कहाँ!
सरगम का, सुर का, राग का, चरचा
न कीजिए,
'डी जे' की धूमधाम है, शहनाइयाँ कहाँ!
क़ुरबानियों में कौन-सी शोहरत
बची है अब?
और बेवफ़ाइयों में भी रुसवाइयाँ कहाँ!
कमरे से एक बार तो बाहर निकल
नदीम,
तनहा दिलों की भीड़ है, तनहाइयाँ कहाँ!
८ दिसंबर २००८ |