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घर में बैठे रहे
घर में बैठे रहे अकेले, गलियों को
वीरान किया,
अपना दर्द छुपाए रक्खा, तो किस पर एहसान किया?
दुखियारों से मिल कर दुख से
लड़ते तो कुछ बात भी थी,
कॉकरोच-सा जीवन जीकर, कहते हो क़ुर्बान किया!
दैर-ओ-हरम वालों का पेशा
फ़िक्र-ए-आक़बत है तो हो,
हमने तो चूल्हे को ख़ुदा और रोटी को ईमान किया।
किशन-कन्हैया गुटका खा कर जूते
पॉलिश करता है,
पर तुमने मन्दिर में जाकर माखन-मिसरी दान किया।
मज़हब, ज़ात, मुकद्दर,
मंदिर-मस्जिद, जप-तप, हज,तीरथ,
दानाओं ने नादानों की उलझन का सामान किया।
कड़ी धूप थी, रस्ते में कुछ
सायेदार दरख़्त मिले,
साथ नहीं चल पाए फिर भी कुछ तो सफ़र आसान किया।
८ दिसंबर २००८ |