| अनुभूति में तसलीम अहमद 
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ज़िंदगी नहीं यह, मजबूरी है,अपनों से दूरी,
 अधूरी,
 हालात के घोड़े पर सवार,
 अंतहीन डगर पर,
 बेमक़सद, बेमंज़िल।
 पल-पल मरने का एहसास,
 कदम-कदम ठोकर।
 परिचित चेहरे, अनगिनत दोस्त,
 एक पल रुककर पूछते हैं-
 ख़ैरियत हो भाई साहब?
 'न' सुनने की फुर्सत किसे?
 'हा' कहना ज़रूरी है।
 २१ अप्रैल २००८ |