| अनुभूति में तसलीम अहमद 
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 |  | जीवन साथी 
झगड़ते बीत रहे हैं दिन-रात,वर्षों से।
 मेरी पसंद का नहीं बनता खाना,
 उन्हें नहीं भाते मेरे लाए हुए कपड़े,
 मेरा घर से बाहर ज़्यादा वक्त गुज़ारना,
 सहन नहीं होता उन्हें।
 उनकी भी कैसे हिम्मत होती है,
 बिन बताए घर की दहलीज़ लांघना।
 एक दिन की थोड़ी है यह बात,
 बात-बात में अक्सर बढ़ जाती है बात।
 सीज फायर...
 दस मिनट, इससे ज़्यादा नहीं।
 मेरे बस में नहीं,
 चुप रह सकूं ज्यादा देर,
 अगर वह हैं मेरे पास।
 पर अच्छा है मर जाऊँ,
 रोज़-रोज़ की किच-किच से तभी मिले छुटकारा।
 पता चले उन्हें भी,
 कितना ज़रूरी था मैं उनके लिए,
 इस अकेले संसार में।
 उनकी भी धमकियाँ-
 ज़हर खा लेंगीं,
 सूरत नहीं दिखाएँगी,
 गाँव के पश्चिम में,
 तालाब के थोड़े बचे पानी में
 डूब जाएँगी।
 पता चलेगा तब,
 क्या होता है औरत का साथ!
 सीज फायर...
 कुल मिलाकर वही दस मिनट,
 खींचतान कर, ज़्यादा नहीं।
 देखो तो -
 मेरी आँख में क्या गिर गया,
 कुछ दिखाई नहीं दे रहा।
 अचानक
 रोटी बेलते-बेलते।
 २१ अप्रैल २००८ |