| अनुभूति में तसलीम अहमद 
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 |  | अंतर मेरे हक को करके गड़मड़उन्होंने थोपना चाहा एहसान।
 देना वे भी चाहते थे,
 माँगता मैं भी था।
 मैं हक से
 वे एहसान से।
 इसी अंतर ने
 बना दिया एक न मिटने वाला
 अंतर
 दोनों के बीच
 वे उस छोर
 मैं इस ओर
 न देख पाते
 एक-दूसरे को देखकर।
 काश!
 न होता एहसान उनके पास
 न होती मुझे हक की तमीज़
 अंतर तो बिल्कुल न होता
 दोनों के आसपास
 क्योंकि,
 यही अंतर है
 रिश्तों के पुल में
 सबसे बड़ी दरार।
 ६ अक्तूबर २००८ |