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सखि

सखि भला क्या खोज रही हो
मेरी सांझ दुपहरी मे

छवि न दूजी पाओगी
मेरे नैनों की देहरी में

परासक्ति का बोध नही
मैं आत्मासक्ति साधक हूँ

मैं प्रेमी हूँ मै ही प्रेयसी
मैं अपनी ही उपासक हूँ

मैं कुमुदित कमलिनि मृदुल
मैं ही आहत मन चातक हूँ

मैं वंशी की तान मधुर
मैं ही बाँसुरिया वादक हूँ

मैं शीतल जल की बुंदकी
मैं ही उन्मादित पावक हूँ

लाख यत्न करने पर भी तुम
नहीं तरलता पाओगी
इस सूखी ठूंठ गंडेरी में

सखि भला क्या खोज रही हो
मेरी सांझ दुपहरी में

२४ जून २००५

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